शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

शिशिर दूत फिर आया

पकवान बनाओ मीठे
खूब खाने का न्योता हूँ
हटादूँगा पीले पत्ते
लाल को जगह देता हूँ
धूप में बैठो चाहे
सूरज को अभी समझाता हूँ
लो मै आगया हूँ
कोहरा बनकर छागया हूँ

अंग न दिखाओ मुझे
मोटे कपडे दिलाता हूँ
चद्दर से काम न चले
तो रजाईयाँ भरवाता हूँ
डरो थोडा तो उससे
खिडकियाँ बन्द करवाता हूँ
लो मैं आगया हूँ
कोहरा बनकर छागया हूँ

सुनो ध्यान से बात मेरी
समझने मे करो न देरी
शीत के गीत गाते वो आ रही है
कंपन, ठिठुरन,दंतवादन ला रही है
नाक में नही, बस मुठ्ठियों में
बन्द कर बगल में दबा लेना
लो मै आ गया हूँ
कोहरा बनकर छागया हूँ

5 टिप्‍पणियां:

  1. शिशिर ऋतु का डंका खूब बजाया आपने । कविता अच्छी लगी ।

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  2. सुनो ध्यान से बात मेरी
    समझने मे करो न देरी
    शीत के गीत गाते वो आ रही है
    कंपन, ठिठुरन,दंतवादन ला रही है
    नाक में नही, बस मुठ्ठियों में
    बन्द कर बगल में दबा लेना
    लो मै आ गया हूँ
    कोहरा बनकर छागया हूँ

    बहुत खूब कौसिक जी .....पर यहाँ तो अभी पंखे ही चल रहे हैं .....!!

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  3. raja bhai aaj fir tippani karne chala aaya hoon bahut talash karta hoon par kavita aapke yahan milti hai visheshkar ye do rachnaein TAPT TAWE WALI aur CHAND FIR GHAR SE NIKLE ..YAH SHISHIR WALI HAI TO ACHHI LEKIN ITNI KHAS NAHIN ..ek baat aapke bare mein kah sakta hoon aapki kavita DIL se nikalti hai DIMAG se nahin isiliye itni jeevant hoti hai..aapse khul kar baat karne ka bahut man hai..par kaise yah maloom nahin

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