गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

चाँद ! अब घर से निकले

नहाय धोय पूजा मनौती में दिन सारा निकले

सुख माँगें सम्पत्ति माँगें अन्न का दाना भी न निगले

करूँ रोज ही करवा चोथ फिर भी वो ना पिघले

साँझ हुई कि रोज चाँद अब घर से निकले


पी पी कर करे ताण्डव चले दिन दिन शिव से मिलने

हे ईश्वर! इस घर को संभालो चलते चलते सूखे मे फिसले

तीज त्यौंहार होली दीवाली क्या दिन दिन फाके मे निकले

छलनी लिये छत पर खड़ी अब तो पसलियों से दम ही निकले


मुड़ मुड़ कर चन्दा देखे आँसू भी ओस बन बिखरे

चिड़िया भी दुखड़ा रोये मेरा करुणा के सागर से सूरज है निकले

हे चौथ माता तेरी तूँ ही जाने मेरे तो पड़े रह गये चावल उबले

एक वर माँगू बस अब तो मेरा चाँद घर से न निकले

2 टिप्‍पणियां:

  1. उपेक्षिता स्त्री के मन की व्यथा का दुर्लभ चित्रण है ... राजाभाई आपके pas एक सचमुच का कविमन है पारदर्शी करुना से भरा हुआ ढेरों के हसाब से कवितायेँ पढता रहता हूँ लेकिन सब रचनायें milati हैं कविता तो कभी कभार ही ... aapke darshan karna bhi achha laga.. deron shubhkamnayein .. sach mein SRASWATI PUTR HO AAP..AAP BURA NAHIN MANIYEGA KAHIN KAHIN EK FINISHING TOUCH KI JAROORAT BHI MEHSOOS HO RAHI HAI ADHIK NAHIN EKADH SHABD KO IDHAR UDHAR KIYE JANE KI..

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  2. बहुत दर्द भरी प्रस्तुति । अति सुंदर ।

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